Wednesday, 8 March 2017

पांडुरंग अष्टकम्

ll श्रीपांडुरंगाष्टकम् ll

महायोगपीठे तटे भीमरथ्या वरं पुंडरीकाय दातुं मुनीद्रैः ।
समागत्य तिष्टंतमानंदकदं परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ १ ॥

तडिद्वाससं नीलमेघावभासं रमामंदिरं सुंदरं चित्प्रकाशम् ।
वरं त्विष्टिकायां समन्यस्तपादं परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ २ ॥

प्रमाणं भवाब्धेरिदं मामकानां नितंबः कराभ्यां धृतो येन तस्मात् ।
विधातुर्वसत्यै धृतो नाभिकोशः परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ ३ ॥

स्फुरत्कौस्तुभालंकृतं कंठदेशे श्रिया जुष्टकेयूरकं श्रीनिवासम् ।
शिवं शान्तमीड्यं वरं लोकपालं परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ ४ ॥

शरचंद्रबिबाननं चारुहासं लसत्कुंडलक्रान्तगंडस्थलांगम् ।
जपारागबिंबाधरं कंजनेत्रम् परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ ५ ॥

किरीटोज्ज्वलत्सर्वदिक् प्रान्तभागं सुरैरर्चितं दिव्यरत्नैरमर्घ्यैः ।
त्रिभंगाकृतिं बर्हमाल्यावतंसं परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ ६ ॥

विभुं वेणुनादं चरन्तं दुरन्तं स्वयं लीलया गोपवेषं दधानम् ।
गवां वृंदकानन्दनं चारुहासं परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ ७ ॥

अजं रुक्मिणीप्राणसंजीवनं तं परं धाम कैवल्यमेकं तुरीयम् ।
प्रसन्नं प्रपन्नार्तिहं देवदेवं परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ ८ ॥

स्तवं पांडुरंगस्य वै पुण्यदं ये पठन्त्येकचित्तेन भक्त्या च नित्यम् ।
भवांबोनिधिं तेऽपि तीर्त्वाऽन्तकाले हरेरालयं शाश्र्वतं प्राप्नुवन्ति ॥ ९ ॥

॥ इति श्री परम पूज्य शंकराचार्यविरचितं श्रीपांडुरंगाष्टकं संपूर्णं ॥

Thursday, 2 March 2017

दत्तात्रेया तव शरणम् / dattatreya tav sharanam

*श्री दत्तात्रेय शरणाष्टक*

दत्तात्रेया तव शरणम् ।
दत्तनाथा तव शरणम् ॥
त्रिगुणात्मका त्रिगुणातीता
त्रिभुवनपालक तव शरणम्॥१॥

शाश्वतमूर्ते तव शरणम् ।
श्यामसुंदरा तव शरणम् ॥
शेषाभरणा शेषभूषणा
शेषशायि गुरु तव शरणम् ॥२॥

षड्भुजमूर्ते तव शरणम् ।
षड्भुजयतिवर तव शरणम्॥
दंडकमंडलु गदापद्मकर
शंखचक्रघर तवं शरणम् ॥३॥

करुणानिधे तव शरणम् ।
करुणासागर तव शरणम् ॥
श्रीपादश्रीवल्लभ गुरुवर
नृसिंहसरस्वति तव शरणम्॥४॥

श्रीगुरुनाथा तव शरणम् ।
सद्गुरुनाथा तव शरणम् ॥
कृष्णासंगमतरुवरवासी
भक्तावत्सला तव शरणम् ॥५॥

कृपामूर्तें तव शरणम् ।
कृपासागरा तव शरणम् ॥
कृपाकटाक्षा कृपावलोकना
कृपानिधे प्रभु तव शरणम्॥६॥

कालांतका तव शरणम् ।
कालनाशका तव शरणम् ॥
पूर्णानंदा पूर्णपरेशा
पुराणपुरुषा तव शरणम् ॥७॥

जगदीशा तव शरणम् ।
जगन्नाथा तव शरणम् ॥
जगत्पालका जगदाधीशा
जगदुद्धारा तव शरणम् ॥८॥

अखिलांतरा तव शरणम् ।
अखिलैश्वर्या तव शरणम्॥
भक्तप्रिया वज्रपंजरा
प्रसन्नवक्त्रा तव शरणम् ॥९॥

दिगंबरा तव शरणम् ।
दीनदयाघन तव शरणम् ॥
दीनानाथा दीनदयाळा
दीनोद्धारा तव शरणम् ॥१०॥

तपोमूर्ते तव शरणम् ।
तेजोराशी तव शरणम् ॥
ब्रह्मानंदा ब्रह्मसनातन
ब्रह्ममोहना तव शरणम् ॥११॥

विश्वात्मका तव शरणम् ।
विश्वरक्षका तव शरणम्॥
विश्वंभरा विश्वजीवना
विश्वपरात्पर तव शरणम् ॥१२॥

विघ्नांतका तव शरणम् ।
विघ्ननाशका तव शरणम् ॥
प्रणवातीत प्रेमवर्धना
प्रकाशमूर्ते तव शरणम् ॥१३॥

निजानंदा तव शरणम् ।
निजपददायका तव शरणम् ॥
नित्यनिरंजन निराकारा
निराधारा तव शरणम् ॥१४॥

चिद्घनमूर्ते तव शरणम् ।
चिदाकारा तव शरणम् ॥
चिदात्मरूपा चिदानंदा
चित्सुखकंदा तव शरणम् ॥१५॥

अनादिमूर्ते तव शरणम् ।
अखिलावतारा तव शरणम् ॥
अनंतकोटिब्रह्मांडनायका
अघटितघटना तव शरणम् ॥१६॥

भक्तोद्धारा तव शरणम् ।
भक्तरक्षका तव शरणम् ॥
भक्तानुग्रहभक्तिप्रिया
पतितोद्धारा तव शरणम् ॥१७॥

Thursday, 16 February 2017

आरती नर्मदा मातेची / Aarati Ma Narmadaji ki

जय जय नर्मद ईश्वरी मेकल संजाते |
निराजयामि नाशित तापत्रय जाते ||धृ||

वारित संसृति भीते सुरवर मुनि गीते |
सुखदे पावन कीर्ते शंकर तनुजाते ||
देवापगाधि तीर्थे दत्ताग्र्य कुमर्थे |
वाचामगम्य कीर्ते जलमय सन्मुर्ते ||
जय जय नर्मद ईश्वरी मेकल संजाते |
निराजयामि नाशित तापत्रय जाते||१||

नन्दनवन समतीरे स्वादु सुधानीरे |
दर्शित भवपर तीरे दमितान्तकसारे ||
सकलक्षेमाधारे,वृत्तपारावारे |
रक्षास्मान् तिघोरे मग्नान् संसारे ||
जय जय नर्मद ईश्वरी मेकल संजाते |
निराजयामि नाशित तापत्रय जाते||२||

स्वयशः पावित जीवे , मामुध्दर रेवे |
तीरन्ते खलु सेवे त्वयि निश्चितभावे ||
कृतदुष्कृत दवदावे , त्वतपदराजीवे |
तारक ईहमे तीजवे , भक्त्या ते सेवे||
जय जय नर्मद ईश्वरी मेकल संजाते |
निराजयामि नाशित तापत्रय जाते||३
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आरती नर्मदा मातेची

जय जय नर्मद ईश्वरी मेकल संजाते |
निराजयामि नाशित तापत्रय जाते ||धृ||
वारित संसृति भीते सुरवर मुनि गीते |
सुखदे पावन कीर्ते शंकर तनुजाते ||
देवापगाधि तीर्थे दत्ताग्र्य पुमर्थे |
वाचामगम्य कीर्ते जलमय सन्मुर्ते ||
जय जय नर्मद ईश्वरी मेकल संजाते |
निराजयामि नाशित तापत्रय जाते||१||
नन्दनवन समतीरे स्वादु सुधानीरे |
दर्शित भवपर तीरे दमितान्तकसारे ||
सकलक्षेमाधारे,वृत्तपारावारे |
रक्षास्मान् तिघोरे मग्नान् संसारे ||
जय जय नर्मद ईश्वरी मेकल संजाते |
निराजयामि नाशित तापत्रय जाते||२||
स्वयशः पावित जीवे , मामुध्दर रेवे |
तीरन्ते खलु सेवे त्वयि निश्चितभावे ||
कृतदुष्कृत दवदावे , त्वतपदराजीवे |
तारक ईहमे तीजवे , भक्त्या ते सेवे||
जय जय नर्मद ईश्वरी मेकल संजाते |
निराजयामि नाशित तापत्रय जाते||३
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Sunday, 24 July 2016

॥कनकधारा स्तोत्रम्॥

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॥कनकधारा स्तोत्रम्॥

अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।

अङ्गीकृताऽखिल-विभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदाऽस्तु मम मङ्गळदेवतायाः ॥१॥

* जैसे भ्रमरी अधखिले पुष्पों से अलंकृत तमाल-वृक्ष का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो दृष्टि श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंगों पर निरंतर पड़ता रहता है तथा जिसमें संपूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, संपूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी का वह कृपादृष्टि मेरे लिए मंगलदायी हो।।1।।

मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपा-प्रणहितानि गताऽऽगतानि।

मालादृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ॥२॥

* जैसे भ्रमरी कमल दल पर मंडराती रहती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बराबर प्रेमपूर्वक जाती है और लज्जा के कारण लौट आती है। समुद्र कन्या लक्ष्मी की वह मनोहर दृष्टिमुझे धन संपत्ति प्रदान करें ।।2।।

विश्वामरेन्द्रपद-वीभ्रमदानदक्ष आनन्द-हेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि।

ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणर्द्ध मिन्दीवरोदर-सहोदरमिन्दिरायाः ॥३॥

* जो संपूर्ण देवताओं के अधिपति इंद्र के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ है, उन मुरारी श्रीहरि को भी आनंदित करने वाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती है, उन लक्ष्मीजी के अधखुले नेत्रों की दृष्टि क्षण भर के लिए मुझ पर भी अवश्य पड़े।।3।।

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्द आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम्।

आकेकरस्थित-कनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥४॥

* शेषशायी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीजी के नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों, जिनकी पु‍तली तथा बरौनियां अनंग के वशीभूत हो अधखुले, किंतु साथ ही निर्निमेष (अपलक) नयनों से देखने वाले आनंदकंद श्री मुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं।।4।।

बाह्वन्तरे मधुजितः श्रित कौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।

कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला, कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ॥५॥

* जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि-मंडित वक्षस्थल में इंद्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होती है तथा उनके भी मन में प्रेम का संचार करने वाली है, वह कमल-कुंजवासिनी कमला की कृपादृष्टि मेरा कल्याण करें।।5।।

कालाम्बुदाळि-ललितोरसि कैटभारे-धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव।

मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्ति-भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ॥६॥

* जैसे मेघों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के समान श्याम वक्षस्थल पर प्रकाशित होती है, जिन्होंने अपने आविर्भाव से भृगुवंश को आनंदित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी है, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीय मूर्ति मुझे कल्याण करें ।।6।

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत् प्रभावान् माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन।

मय्यापतेत्तदिह मन्थर-मीक्षणार्धं मन्दाऽलसञ्च मकरालय-कन्यकायाः ॥७॥

* समुद्र कन्या कमला की वह मंद, अलस, मंथर और अर्धोन्मीलित दृष्टि, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, वही दृष्टि मुझ पर भी पड़े।।7।।

दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा मस्मिन्नकिञ्चन विहङ्गशिशौ विषण्णे।

दुष्कर्म-घर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण-प्रणयिनी नयनाम्बुवाहः ॥८॥

* भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) रूपी घाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करें।।8।।

इष्टाविशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते।

दृष्टिः प्रहृष्ट-कमलोदर-दीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ॥९॥

* विशिष्ट बुद्धि वाले मनुष्य जिनके प्रीति पात्र होकर जिस दया दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, पद्‍मासना पद्‍मा की वह विकसित कमल-गर्भ के समान कांतिमयी दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करें।।9।।

गीर्देवतेति गरुडध्वजभामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर-वल्लभेति।

सृष्टि-स्थिति-प्रलय-केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ॥१०॥

* जो सृष्टि रचना के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में स्थित होती है, त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान नारायण की उन नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।।10।।

श्रुत्यै नमोऽस्तु नमस्त्रिभुवनैक-फलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीय गुणाश्र​यायै।

शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्र निकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै ॥११॥

हे देवी । शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिंधु रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल वन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है।।11।।

नमोऽस्तु नालीक-निभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधि-जन्मभूत्यै।

नमोऽस्तु सोमामृत-सोदरायै नमोऽस्तु नारायण-वल्लभायै ॥१२॥

* कमल के समान कमला देवी को नमस्कार है। क्षीरसिंधु सभ्यता श्रीदेवी को नमस्कार है। चंद्रमा और सुधा की सहोदरी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है। ।।12।।

नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै।

नमोऽस्तु देवादिदयापरायै नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै ॥१३॥

* कमल के समान नेत्रों वाली हे मातेश्वरी ! आप सम्पतिव सम्पुर्ण इंद्रियों को आनंद प्रदान देने वाली हो, , साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सर्वथा हर लेती होमुझे ही आपकी चरण वंदना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे।।13।।

नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै नमोऽस्तु विष्णोरुरसि स्थितायै।

नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै ॥१४॥

* जिनकी कृपा दृष्टि के लिए की गई उपासना उपासक के लिए संपूर्ण मनोरथों और संपत्तियों का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मी देवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूं।।14।।

नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै।

नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ॥१५॥

* हे विष्णु प्रिये! तुम कमल वन में निवास करने वाली हो,  तुम्हारे हाथों में नीला कमल सुशोभित है। तुम अत्यंत उज्ज्वल वस्त्र, गंध और माला आदि से सुशोभित हो। तुम्हारी झांकी बड़ी मनोरम है। त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवी, मुझ पर प्रसन्न हो जाओ।।15।।

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रिय-नन्दनानि साम्राज्यदान विभवानि सरोरुहाक्षि।

त्वद्-वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्यत् ॥१६॥

* दिशाओं द्वारा सुवर्ण-कलश के मुख से गिराए गए आकाश गंगा के निर्मल एवं मनोहर जल से जिनके श्री अंगों का अभिषेक (स्नान) संपादित होता है, संपूर्ण लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु की गृहिणी और क्षीरसागर की पुत्री उन जगज्जननी लक्ष्मी को मैं प्रात:काल प्रणाम करता हूं।।16।।

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूर-तरङ्गितैरपाङ्गैः।

अवलोकय मामकिञ्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ॥१७॥

* कमल के समान नेत्र वाले भगवन केशव की कामिनी पत्नि हे कमले! मैं अकिंचन (दीन-हीन) मनुष्यों में अग्रगण्य हूं, तुम्हारी कृपा का स्वाभाविक पात्र हूं। आप मुझ पर कृपा दृष्टि करें

 

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमीभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।

गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुविबुधभाविताशयाः ॥१८॥

* जो लोग इस प्रकार प्रतिदिन वेदत्रयी स्वरूपा त्रिभुवन-जननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस लोकमें महान गुणवान और अत्यंत भाग्यवान. होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभावों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।।18।।

॥श्रीमदाध्यशङ्कराचार्यविरचितं श्री कनकधारा स्तोत्रम् समाप्तम्॥

Saturday, 23 July 2016

संकटनाशनगणेशस्तोत्रम् / Sankatnashanstotram

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संकटनाशनगणेशस्तोत्रम्

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम् ।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यं आयुःकामार्थसिद्धये॥१॥

प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम् ।
तृतीयं कृष्णपिङ्गाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम्॥२॥

लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च ।
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टमम्॥३॥

नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम् ।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम्॥४॥

द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः ।
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरः प्रभुः॥५॥

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान्मोक्षार्थी लभते गतिम्॥६॥

जपेद्गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासैः फलं लभेत् । संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः॥७॥

अष्टेभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत् ।
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादतः॥८॥

कालभैरवाष्टकम्


कालभैरवाष्टकम्

देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम् । 
नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ १॥ 

भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम् । 
कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ २॥ 

शूलटंकपाशदण्डपाणिमादिकारणं श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम् । 
भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ३॥ 

भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम् । 
विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ४॥ 

धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशनं कर्मपाशमोचकं सुशर्मधायकं विभुम् । 
स्वर्णवर्णशेषपाशशोभितांगमण्डलं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ५॥ 

रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम् । 
मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्ट्रमोक्षणं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ६॥ 

अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं दृष्टिपात्तनष्टपापजालमुग्रशासनम् । 
अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ७॥ 

भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम् । 
नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ८॥

फल श्रुति॥ 

कालभैरवाष्टकं पठंति ये मनोहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम् । 
शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवम् ॥ 

॥इति कालभैरवाष्टकम् संपूर्णम् ॥