Sunday, 24 July 2016

॥कनकधारा स्तोत्रम्॥

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॥कनकधारा स्तोत्रम्॥

अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।

अङ्गीकृताऽखिल-विभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदाऽस्तु मम मङ्गळदेवतायाः ॥१॥

* जैसे भ्रमरी अधखिले पुष्पों से अलंकृत तमाल-वृक्ष का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो दृष्टि श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंगों पर निरंतर पड़ता रहता है तथा जिसमें संपूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, संपूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी का वह कृपादृष्टि मेरे लिए मंगलदायी हो।।1।।

मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपा-प्रणहितानि गताऽऽगतानि।

मालादृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ॥२॥

* जैसे भ्रमरी कमल दल पर मंडराती रहती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बराबर प्रेमपूर्वक जाती है और लज्जा के कारण लौट आती है। समुद्र कन्या लक्ष्मी की वह मनोहर दृष्टिमुझे धन संपत्ति प्रदान करें ।।2।।

विश्वामरेन्द्रपद-वीभ्रमदानदक्ष आनन्द-हेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि।

ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणर्द्ध मिन्दीवरोदर-सहोदरमिन्दिरायाः ॥३॥

* जो संपूर्ण देवताओं के अधिपति इंद्र के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ है, उन मुरारी श्रीहरि को भी आनंदित करने वाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती है, उन लक्ष्मीजी के अधखुले नेत्रों की दृष्टि क्षण भर के लिए मुझ पर भी अवश्य पड़े।।3।।

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्द आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम्।

आकेकरस्थित-कनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥४॥

* शेषशायी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीजी के नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों, जिनकी पु‍तली तथा बरौनियां अनंग के वशीभूत हो अधखुले, किंतु साथ ही निर्निमेष (अपलक) नयनों से देखने वाले आनंदकंद श्री मुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं।।4।।

बाह्वन्तरे मधुजितः श्रित कौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।

कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला, कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ॥५॥

* जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि-मंडित वक्षस्थल में इंद्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होती है तथा उनके भी मन में प्रेम का संचार करने वाली है, वह कमल-कुंजवासिनी कमला की कृपादृष्टि मेरा कल्याण करें।।5।।

कालाम्बुदाळि-ललितोरसि कैटभारे-धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव।

मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्ति-भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ॥६॥

* जैसे मेघों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के समान श्याम वक्षस्थल पर प्रकाशित होती है, जिन्होंने अपने आविर्भाव से भृगुवंश को आनंदित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी है, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीय मूर्ति मुझे कल्याण करें ।।6।

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत् प्रभावान् माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन।

मय्यापतेत्तदिह मन्थर-मीक्षणार्धं मन्दाऽलसञ्च मकरालय-कन्यकायाः ॥७॥

* समुद्र कन्या कमला की वह मंद, अलस, मंथर और अर्धोन्मीलित दृष्टि, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, वही दृष्टि मुझ पर भी पड़े।।7।।

दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा मस्मिन्नकिञ्चन विहङ्गशिशौ विषण्णे।

दुष्कर्म-घर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण-प्रणयिनी नयनाम्बुवाहः ॥८॥

* भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) रूपी घाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करें।।8।।

इष्टाविशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते।

दृष्टिः प्रहृष्ट-कमलोदर-दीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ॥९॥

* विशिष्ट बुद्धि वाले मनुष्य जिनके प्रीति पात्र होकर जिस दया दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, पद्‍मासना पद्‍मा की वह विकसित कमल-गर्भ के समान कांतिमयी दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करें।।9।।

गीर्देवतेति गरुडध्वजभामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर-वल्लभेति।

सृष्टि-स्थिति-प्रलय-केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ॥१०॥

* जो सृष्टि रचना के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में स्थित होती है, त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान नारायण की उन नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।।10।।

श्रुत्यै नमोऽस्तु नमस्त्रिभुवनैक-फलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीय गुणाश्र​यायै।

शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्र निकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै ॥११॥

हे देवी । शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिंधु रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल वन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है।।11।।

नमोऽस्तु नालीक-निभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधि-जन्मभूत्यै।

नमोऽस्तु सोमामृत-सोदरायै नमोऽस्तु नारायण-वल्लभायै ॥१२॥

* कमल के समान कमला देवी को नमस्कार है। क्षीरसिंधु सभ्यता श्रीदेवी को नमस्कार है। चंद्रमा और सुधा की सहोदरी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है। ।।12।।

नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै।

नमोऽस्तु देवादिदयापरायै नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै ॥१३॥

* कमल के समान नेत्रों वाली हे मातेश्वरी ! आप सम्पतिव सम्पुर्ण इंद्रियों को आनंद प्रदान देने वाली हो, , साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सर्वथा हर लेती होमुझे ही आपकी चरण वंदना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे।।13।।

नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै नमोऽस्तु विष्णोरुरसि स्थितायै।

नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै ॥१४॥

* जिनकी कृपा दृष्टि के लिए की गई उपासना उपासक के लिए संपूर्ण मनोरथों और संपत्तियों का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मी देवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूं।।14।।

नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै।

नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ॥१५॥

* हे विष्णु प्रिये! तुम कमल वन में निवास करने वाली हो,  तुम्हारे हाथों में नीला कमल सुशोभित है। तुम अत्यंत उज्ज्वल वस्त्र, गंध और माला आदि से सुशोभित हो। तुम्हारी झांकी बड़ी मनोरम है। त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवी, मुझ पर प्रसन्न हो जाओ।।15।।

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रिय-नन्दनानि साम्राज्यदान विभवानि सरोरुहाक्षि।

त्वद्-वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्यत् ॥१६॥

* दिशाओं द्वारा सुवर्ण-कलश के मुख से गिराए गए आकाश गंगा के निर्मल एवं मनोहर जल से जिनके श्री अंगों का अभिषेक (स्नान) संपादित होता है, संपूर्ण लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु की गृहिणी और क्षीरसागर की पुत्री उन जगज्जननी लक्ष्मी को मैं प्रात:काल प्रणाम करता हूं।।16।।

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूर-तरङ्गितैरपाङ्गैः।

अवलोकय मामकिञ्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ॥१७॥

* कमल के समान नेत्र वाले भगवन केशव की कामिनी पत्नि हे कमले! मैं अकिंचन (दीन-हीन) मनुष्यों में अग्रगण्य हूं, तुम्हारी कृपा का स्वाभाविक पात्र हूं। आप मुझ पर कृपा दृष्टि करें

 

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमीभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।

गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुविबुधभाविताशयाः ॥१८॥

* जो लोग इस प्रकार प्रतिदिन वेदत्रयी स्वरूपा त्रिभुवन-जननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस लोकमें महान गुणवान और अत्यंत भाग्यवान. होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभावों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।।18।।

॥श्रीमदाध्यशङ्कराचार्यविरचितं श्री कनकधारा स्तोत्रम् समाप्तम्॥

Saturday, 23 July 2016

संकटनाशनगणेशस्तोत्रम् / Sankatnashanstotram

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संकटनाशनगणेशस्तोत्रम्

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम् ।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यं आयुःकामार्थसिद्धये॥१॥

प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम् ।
तृतीयं कृष्णपिङ्गाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम्॥२॥

लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च ।
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टमम्॥३॥

नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम् ।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम्॥४॥

द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः ।
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरः प्रभुः॥५॥

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान्मोक्षार्थी लभते गतिम्॥६॥

जपेद्गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासैः फलं लभेत् । संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः॥७॥

अष्टेभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत् ।
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादतः॥८॥

कालभैरवाष्टकम्


कालभैरवाष्टकम्

देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम् । 
नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ १॥ 

भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम् । 
कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ २॥ 

शूलटंकपाशदण्डपाणिमादिकारणं श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम् । 
भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ३॥ 

भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम् । 
विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ४॥ 

धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशनं कर्मपाशमोचकं सुशर्मधायकं विभुम् । 
स्वर्णवर्णशेषपाशशोभितांगमण्डलं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ५॥ 

रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम् । 
मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्ट्रमोक्षणं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ६॥ 

अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं दृष्टिपात्तनष्टपापजालमुग्रशासनम् । 
अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ७॥ 

भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम् । 
नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ८॥

फल श्रुति॥ 

कालभैरवाष्टकं पठंति ये मनोहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम् । 
शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवम् ॥ 

॥इति कालभैरवाष्टकम् संपूर्णम् ॥

शिवमहिम्न: स्तोत्रम् / Shivmahimna

।। शिव महिम्न: स्तोत्रम् ।।

एक समय चित्ररथ नाम के राजा ने एक अद्भुत सुंदर बाग का निर्माण करवाया। जिसमें विभिन्न प्रकार के सुंदर फूल लग रहे थे। प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे। एक दिन पुष्पदंत नामक गन्धर्व जो इंद्र के दरबार में गायक था, उद्यान की तरफ से जाते हुए फूलों की सुंदरता से मोहित हो कर उन्हें चुराने लगा। परिणाम स्वरुप राजा चित्ररथ भगवान शिव को फूल अर्पित नहीं कर पा रहे थे। राजा बहुत प्रयास के बाद भी चोर को पकड़ने में असफल रहे क्योंकि गन्धर्व पुष्पदंत में अदृश्य रहने की शक्ति थी। अंत में राजा ने अपने बगीचे में शिव निर्माल्य फैला दिया। अनजाने में पुष्पदंत शिव निर्माल्य के ऊपर से चला गया, जिससे उसे भगवान शिव का कोप भाजन बनाना पड़ा। फलतः पुष्पदंत की दिव्य शक्तियाँ नष्ट हो गयीं। उसने क्षमा याचना के लिए भगवान शिव की महिमा का गुणगान करते हुए स्तुति की। भगवान शिव की कृपा से पुष्पदंत की दिव्य शाक्तियाँ लौट आयीं। पुष्पदंत द्वारा रचित भगवान शिव की स्तुति 'शिव महिम्न्स्तोत्रं' के नाम से प्रसिद्द हुई। ४३ क्षन्दो का यह स्तोत्र शिव भक्तों को अत्यंत प्रिय है।

॥ श्रीशिवमहिम्नस्तोत्र ( पुष्पदन्त ) ॥


  ॥ श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्न स्तोत्रम् ॥

      ॥ ॐ नमः शिवाय ॥

   ॥ अथ श्री शिवमहिम्नस्तोत्रम् ॥

महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी

स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ।

अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्

ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ॥ १॥

अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः

अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।

स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः

पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥ २॥

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः

तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।

मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः

पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता ॥ ३॥

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्

त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु ।

अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं

विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ॥ ४॥

किमीहः किङ्कायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं

किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।

अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः

कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः ॥ ५॥

अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां

अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति ।

अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो

यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥ ६॥

त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति

प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ ७॥

महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः

कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।

सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां

न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ॥ ८॥

ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं

परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।

समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव

स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥ ९॥

तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः

परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः ।

ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्

स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ॥ १०॥

अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं

दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान् ।

शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः

स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ॥ ११॥

अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं

बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः ।

अलभ्यापातालेऽप्यलसचलिताङ्गुष्ठशिरसि

प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ॥ १२॥

यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं

अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः ।

न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः

न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥ १३॥

अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा

विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः ।

स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो

विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय- भङ्ग- व्यसनिनः ॥ १४॥

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे

निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।

स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्

स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः ॥ १५॥

मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं

पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह- गणम् ।

मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा

जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥ १६॥

वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः

प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते ।

जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति

अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ॥ १७॥

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो

रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति ।

दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः

विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ॥ १८॥

हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः

यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।

गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः

त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर  जागर्ति जगताम् ॥ १९॥

क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां

क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।

अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं

श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः ॥ २०॥

क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां

ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः ।

क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः

ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः ॥ २१॥

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं

गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।

धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं

त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ॥ २२॥

स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्

पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।

यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्

अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ॥ २३॥

श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः

चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः ।

अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं

तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि ॥ २४॥

मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः

प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः ।

यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये

दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान् ॥ २५॥

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः

त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।

परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं

न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि ॥ २६॥

त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्

अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति ।

तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः

समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ॥ २७॥

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्

तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।

अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि

प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते ॥ २८॥

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः

नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः ।

नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः

नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः ॥ २९॥

बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः

प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः ।

जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः

प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥ ३०॥

कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं

क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः ।

इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्

वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ॥ ३१॥

असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे

सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।

लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं

तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥ ३२॥

असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः

ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।

सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः

रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार ॥ ३३॥

अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्

पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः ।

स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र

प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ॥ ३४॥

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः ।

अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ॥ ३५॥

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः ।

महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ३६॥

कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः

शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः ।

स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्

स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः ॥ ३७॥

सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं

पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः ।

व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः

स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥ ३८॥

आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम् ।

अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम् ॥ ३९॥

इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः ।

अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ॥ ४०॥

तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर ।

यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ॥ ४१॥

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः ।

सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते ॥ ४२॥

श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन

स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण ।

कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन

सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥ ४३॥

॥ इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः

         स्तोत्रं समाप्तम् ॥

श्री ललितासहस्रनामस्तोत्रम्/ Lalitasahasranam

||श्री ललितासहस्रनामस्तोत्रम् ||

।। न्यासः ।।


अस्य श्रीललितासहस्रनामस्तोत्रमाला मन्त्रस्य वशिन्यादि वाग्देवता ऋषयः ।

अनुष्टुप् छन्दः । श्रीललितापरमेश्वरी देवता । श्रीमद्वाग्भवकूटेति बीजम् ।

मध्यकूटेति शक्तिः । शक्तिकूटेतिकीलकम् ।

श्रीललितामहात्रिपुरसुन्दरी प्रसादसिद्धिद्धारा चिन्तित फलावाप्त्यर्थे जपे विनियोगः । लमित्यादिञ्चपूजां कुर्यात् ।

।। ध्यानम् ।।

सिन्दूरारुणविग्रहां त्रिनयनां माणिक्यमौलिस्फुरत्

तारानायकशेखरां स्मितमुखीमापीनवक्षोरुहाम् ।

पाणिभ्यामलिपूर्णरत्नचषकं रक्तोफळं बिभ्रतीं

सौम्या रत्नघटस्थरक्तचरणां ध्यायेत्पराम्बिकाम् ।।


श्री ललितासहस्रनामस्तोत्रम्

ॐ श्रीमाता श्रीमहाराज्ञी श्रीमत्सिंहासनेश्वरी ।
चिदग्रि – कुण्ड – सम्भूता- देवकार्य -समुद्यता ।।

उद्भानु -सहस्राभा -चर्तुबाहू -समन्विता ।
रागस्वरुप –पाशाढ्या- क्रोधाकारांक्कुशोज्ज्वाळा ।।

मनोरुपेक्षु -कोदण्डा -पञ्चतन्मात्र -सायका ।
निजारुण -प्रभापूर -मज्जद्वह्याण्ड -मण्डला ।।

चम्पकाशोक – पुन्नाग – सौगन्धिक –लसत्कचा ।
कुरुविन्द – मणि-श्रेणी – कनत्कोटीर – मण्डिता ।।

अष्टमीचन्द्र – विभ्राज – दलिकस्थल – शोभिता ।
मुखचन्द्र – कलंक्काभ – मृगनाभि – विशेषका ।।

वदनस्मर – माङ्गळ्य – गृहतोरण – चिळ्लिका ।
वक्त्रलक्ष्मी – परिवाह- चलन्मीनाभ – लोचना ।।

नवचम्पक – पुष्पाभ- नासादण्ड – विराजिता ।
ताराकान्ति- तिरस्कारि – नासाभरण-भासुरा ।।

कदम्बमञ्जरी – क्लृप्त-कर्णपूर-मनोहरा ।
ताटङ्क – युगली-भूत – तपनोडुप – मण्डला ।।

पद्य्मरागशिलादर्श – परिभावि – कपोलभूः ।
नवविद्रुम – बिम्बश्री – न्यक्कारि – रदनच्छदा ।।

शुद्धविद्यांकुराकार – द्विजपंक्ति – द्वयोज्ज्वला ।
कर्पूरवीटिकामोद – समाकर्ष-द्विगन्तरा ।।

निज – सळ्लाप – माधुर्य – विनर्भिर्त्सित – कच्छपी ।
मन्दस्मित – प्रभापूर – मज्ज्तकामेश – मानसा ।।

अनाकालित – सादृश्य – चुबुकश्री – विराजिता ।
कामेश – बद्ध-माङ्ग्ल्य-सूत्र-शोभित – कन्धरा ।।

कनकाङ्ग्द – केयूर – कमनीय – भुजानविता ।
रत्नग्रैवेय – चिन्ताक – लोल- मुक्ता- फलान्विता ।।

कामेश्वर – प्रेमरत्न-मणि – प्रतिपण – स्तनी ।
न्याभ्यालवाल – रोमालि – लता-फल-कुचद्वयी ।।

लक्ष्यरोम - लताधारता – समुन्नेय – मध्यमा ।।
स्तनभार – दलन्मध्य – पट्टबन्ध – वलित्रया ।।

अरुणारुणकौसुम्भ – वस्त्र – भास्वत् – कटीतटी ।
रत्न – किङ्किणिका – रम्य – रशना – दाम – भूषिता ।।

कामेश – ज्ञात – सौभाग्य – मार्दुवोरु – द्वयान्विता ।
माण्यिकामुकुटाकार – जानुद्वय – विराजिता ।।

इन्द्रगोप – परिक्षिप्तस्मरणतूनाभ – जंघिका ।
गूढगुळ्फा – कूर्मपृष्ठ- ययिष्णु – प्रपदान्विता ।।

नख – दीधित – संछन्न – नमज्जन – तमोगुणा ।
पदद्वय – प्रभाजाल – पराकृत – सरोरुहा ।।

सिञ्जान – मणिमञ्जीर मण्डित – श्री-पदाम्बुजा ।
मराली-मन्दगमना – महालावण्य – शेवधिः ।।

सर्वारुणाऽनवद्यांगी – सर्वाभरण – भूषिता ।
शिव कामेश्वराङ्कस्था – शिवा स्वाधीन – वल्लभा ।।

सुमेरु – मध्य – शृङ्गत्था – श्रीमन्नगर- नायिका ।
चिन्तामणि गृहान्तस्था पञ्च-ब्रह्मासन – स्थिता ।।

महापद्य्माटवी – संस्था कदम्बवन – वासिनी ।
सुधासागर – मध्यस्था कामाक्षी कामदायिनी ।।

देवर्षि- गण- संघात – स्तूयमानात्म – वैभवा ।
भण्डासुर – वधोद्युक्त – शक्तिसेना – समान्विता ।।

सम्पत्करी – समारुढ – सिन्धुर – वज्र – सेविता ।
अश्र्वारुढाधिष्ठिताश्र – कोटि – कोटिभि – रावृता ।।

चक्रराज – रथारुढ – सर्वायुध – परिष्कृता ।
गेयचक्र – रथारुढ – मंत्रिणी – परिसेविता ।।

किरिचक्र – रथारुढ – दण्डनाथा – पुरस्कृता ।
ज्वालामालिनिकाक्षिप्त – मह्निप्राकार – मध्यगा ।।

भण्डसैन्य – वधोयुक्त – शक्ति – विक्रम – हर्षिता ।
नित्या – पराक्रमाटोप – निरीक्षण- समुत्सुका ।।

भण्डपुत्र – वधोद्युक्त – बाला – विक्रम – नन्दिता ।
मन्त्रिण्यम्बा – विरचित – विषङ्ग – वध – तोषिता ।।

विशुक्र – प्राणहरण – वाराही – वीर्य- नन्दिता ।
कामेश्वर – मुखालोक – कल्पित – श्रीगणेश्वरा ।।

महागणेश – निभिन्न – विघ्नयन्त्र – प्रहर्षिता ।
भण्डासुरेन्द्र – निर्मुक्त – शस्त्र – प्रयस्र – वर्षिणी

कराङ्गुलि – नखोत्पन्न – नारायण-दशाकृतिः ।
महा – पाशुपतास्राग्रि-निर्दग्धासुर – सैनिका ।।

कामेश्वरास्र – निर्दग्ध – सभण्डासुर – शून्यका ।
ब्रह्मोपेन्द्र – महेन्द्रादि – देव – संस्तुत – वैभवा ।।

हर- नेत्राग्रि – संदग्ध – काम – सञ्जीवनौषधिः ।
श्रीमद्वाग्भव – कूटैक – स्वरुप – मुख – पंक्कजा ।।

कण्ठाधः – कटि – पर्यन्त – मध्यकूट – स्वरुपिणी ।
शक्तिकूटैकतापन्न – कट्यधोभाग – धारिणी ।।

मूलमन्त्रात्मिका मूलकूटत्रय – कलेवरा ।
कुलामृतैक – रसिका – कुलसंकेत – पालिनी ।।

कुलाङ्गना कुलान्तस्था कौलिनी कुलयोगिनी ।
अकुला समयान्तरस्था समयाचार – तत्परा ।।

मूलाधारैक – निलया ब्रह्माग्रन्थि – विभेदिनी ।
मणिपूरान्तरुदिता विष्णुग्रन्थि विभेदनी ।।

आज्ञाचक्रकान्तरालस्था रुद्रग्रन्थि – विभेदनी ।
सहस्राम्बुजारुढा सुधासाराभिवर्षिणी ।।

तडिलता समरुचिऋ षट्चक्रोपरि – संस्थिता ।
महाशक्तिः कुण्डलिनी बिसतन्तु – तनीयसी ।।

भवानी भावनागम्या भवारण्य – कुठारिका ।
भद्रप्रिया भद्रमूर्ति – भक्त- सौभाग्यदायिनी ।।

भक्तिप्रिया भक्तिगम्या भक्तिवश्या भयापहा ।
शाम्भवी शारदाराध्या शर्वाणी शर्मदायिनी ।।

शाक्करी श्रीकरी साध्वी शरचन्द्र – निभानना ।
शातोदरी शान्तिमती निराधारा निरञ्जना ।।

निर्लेपा निर्मला नित्या निराकारा निराकुला ।
निर्गुणा निष्कला शान्ता निष्कामा निरुपप्लवा ।।

नित्यमुक्ता निर्विकारा निष्प्रपञ्जा निराश्रया ।
नित्यशुद्धा नित्यबुद्धा निरवद्या निरन्तरा ।।

निष्कारणा निष्कलङ्का निरुपाधि – र्निरीश्वरा ।
नीरागा रागथनी निर्मदा मदनाशिनी ।।

निश्रिन्ता निरहङ्कारा निर्मोहा मोहनाशिनी ।
निमर्मा ममताहन्त्री निष्पापा पापनाशिनी ।।

निष्क्रोधा क्रोधशमनी निर्लोभा लोभनाषिनी ।
निःसंशया संशयघ्नी निर्भवा भवनाषिनी ।।

निर्विकल्पा निराबाधा निर्भेदा भेदनाशिनी ।
निर्नाशा मृत्युमथनी निष्क्रिया निष्परिग्रहा ।।

निस्तुला नीलचिकुरा निरपाया निरत्यया ।
दुर्लभा दुर्गमा दुर्गा दुःखहन्त्री सुखप्रदा ।।

दुष्टदूरा दुराचारशमनी दोष-वर्जिता ।
सर्वज्ञा सान्द्रकरुणा समानाधिक – वर्जिता ।।

सर्वशक्तिमयी सर्वमाङ्ग्ला सद्गति – प्रदा ।
सर्वेश्वरी सर्वमयी सर्वमन्त्र सर्वरुपिणी ।।

सर्व – यन्त्रात्मिका सर्व – तन्त्ररुपा मनोन्मनी ।
माहेश्वरी महादेवी महालक्ष्मी – मृडप्रिया ।।

महारुपा महापूज्या महा – पातक-नाशिनी ।
महामाया महासत्वा महाशक्ति – र्मकारतिः ।।

महाभोगा महैश्वर्या महावीर्या महाबला ।
महाबुद्धि – महासिद्धि – र्महायोगेश्वरेश्वरी ।।

महातन्त्रा – महामन्त्रा महायन्त्रा महासना ।
महायाग – महाक्रमाराध्या – महाभैरव – पूजिता ।

महेश्वर – महाकल्प –महाताण्डव – साक्षिणी ।
महाकामेश – महिषी महारात्रिपुरसुन्दरी ।।

चतुष्टषष्ट्युपचाराढ्या चतुष्टषष्टकलामयी ।
महाचतुःषष्टकोटि –योगिनी – गणसेवीता ।।

मनुविद्या चन्द्रविद्या चन्द्रमण्डल मध्यगा ।
चारुरुपा चारुहासा चारुचन्द्र – कलाधरा ।।

चराचर – जगन्नाथा चक्ररात – निकेतना ।
पार्वती पद्य्मनयना पद्य्मराग – समप्रभा ।।

पञ्चप्रेतासनासीना पञ्चब्रब्मस्वरुपिणी ।
चिरमयी परमानन्दा विज्ञानज्ञनस्वरुपिणी ।।

ध्यान – ध्यातृ – ध्येयरुपा धर्माधर्मविवर्जिता ।
विश्वरुपा जागरणी स्वपन्ती तैजसात्मिका ।।

सुप्ता प्राज्ञात्मिका तुर्या सर्वावस्था – विवर्जिता ।
सृष्टिकर्त्री ब्रह्मरुपा गोप्त्री गोविन्दरुपिणी ।।

संहारिणी रुद्ररुपा तिरोधानकरीश्वरी ।
सदाशिवाऽनुग्रहदा पञ्चकृत्यपरायणा ।।

भानुमण्डल – मध्यस्था भैरवी भगमालिनी ।
पद्य्मासना भगवती पद्य्मनाभ – सहोदरी ।।

उन्मेष – निमिषोत्पन्न – विपन्न – भुवनावलिः ।
सहस्रशीर्षवदना सहस्राक्षी सहस्रपात् ।।

आब्रह्मकीटजननी वर्णाश्रम विधायनी ।
निजाज्ञारुप – निगमा पुण्यापुण्य – फलप्रदा ।।

श्रुति सिमन्त सिन्दुरी – कृत – पादाब्जधूलिका ।
सकलागम सन्दोह – सूक्ति – सम्पुट – मौक्तिका ।।

पुरुषार्थ प्रदा पूर्णा भोगिनी भुवनेश्वरी ।
अम्बिकाऽनादि – निधना हरिब्रह्मेनदु सेविता ।।

नारायणी नादरुपा नामरुप – विवर्जिता ।
ह्रीं कारी ह्रीमती ह्रया हेयोपादेय वर्जिता ।।

राजराजार्चिता राज्ञी रम्या राजीव लोचना ।
रञ्जनी रमणी रस्या रणत्किङ्किणी – मेखला ।।

रमा राकेन्दु – वदना रतिरुपा रतिप्रिया ।
रक्षाकरी राक्षसघ्नी रामा रमणलम्पटा ।।

काम्या कामकलारुपा कदम्ब-कुसुम-प्रिया ।
कल्याणी जगती – कन्दा करुणा रस सागरा ।।

कलावती कलालापा कान्ता कादम्बरी – प्रिया ।
वरदा वामनयना वारुणी – मद – विह्वला ।।

विश्वाशिका वेदवेद्या विन्ध्याचल – निवासनी ।
विधात्री वेदजननी विष्णुमाया विलासनी ।।

क्षेत्रस्वरुपा क्षेत्रेशी क्षेत्र – क्षेत्र्यज्ञ – पालिनी ।
क्षयवृद्धि – विर्निमुक्ता क्षेत्रपाल – समर्जिता ।।

विजया विमला वन्ध्या वन्दारु –जन-वत्सला ।
वाग्वादिनी वामकेशी वह्मिमण्डल वासिनी ।।

भक्तिमय कल्पलतिका पशुपाश – विमोचनी ।
संह्रताशेष – पाषण्डा सदाचार – प्रवर्तिका ।।

तापत्रयाग्रि – सन्तप्त – समाह्वदन – चन्द्रिका ।
तरुणी तापसा राध्या तनुमध्या तमोऽपहा ।।

चिति – स्ततपद – लक्ष्यार्थी चिदेकरस – रुपिणी ।
स्वात्मानन्द लयाभूत – ब्रह्माद्यानन्द – सन्तति ।।

परा प्रत्यक चित्तरुपा पश्यन्ती परदेवता ।
मध्यमा वैखरी रुपा भक्तृमानस – हंसिका ।।

कामेश्वर – प्राणनाडी कृतज्ञा कामपूजिता ।
श्रृंगार रस- सम्पूर्णा जया जालन्धर स्थिता ।।

ओड्यपाण-पीठ – विलया बिन्दु – माण्डलवासिनी ।
रहायोग – क्रमाराध्या रहस्तपर्ण – तर्पिता ।।

सद्यः प्रसादिनी विश्वसाक्षिणी साक्षिवर्जिता ।
षडङ्गदेवता – युक्ता षाड्गुण्य – परिपूरिता ।।

नित्या – क्लिन्ना निरुपमा निर्वाण सुख दायिनी ।
नित्याषोडशिका – रुपा श्रीकण्ठार्ध – शरीरिणी ।।

प्रभावती प्रभारुपा प्रसिद्धा परमेश्वरी ।
मूलप्रकृति – रव्यक्ता व्यक्ताव्यक्त – स्वरुपिणी ।।

व्यापिनी विविधाकारा विद्याऽविद्या – स्वरुपिणी ।
महाकामेश नयन-कुमुदाह्वाद – कौमुदी ।।

'भक्त –हार्द – तमो – भेद – मद्भानु संततिः ।
शिवदूती शिवराध्या शिवमूर्तिः शिवक्करि ।।

शिवप्रिया शिवपरा शिष्टेष्टा शिष्टपूजिता ।
अप्रमेया स्वप्रकाशा मनो-वाचामगोचरा ।।

च्छिछक्ति – श्चेतना – रुपा जडशक्ति – र्जडात्मिका ।
गायत्री – व्याह्रती संध्या द्विजबृन्द – निषेविता ।।

तत्वासना तत्तवमयी पञ्चकोशान्तर – स्थिता ।
निःसीम – महिमा नित्य – यौवना मदशालिनी ।।

मद्घूर्णित रक्ताक्षी मदपाट्ल-गण्डभूः ।
चन्दन – द्रव – दिग्धाङ्की चाम्पेय –कुसुम – प्रिया ।।

कुशला कोमलाकारा कुरुकुल्ला कुलेश्वरी ।
कुलकुण्डलया कौलमार्ग – तत्पर – सेविता ।।

कुमार – गणनाशाम्बा तुष्टिः पुष्टि-र्मति-धृतिः ।
शान्तिः स्वस्तिमयी कान्ति-र्नन्दिनी विघ्ननाशिनी ।।

तेजोवती त्रिनयना लोलाक्षी – कामरुपिणी ।
मालिनी हंसिनी माता मलयाचल – वासिनी ।।

सुमुखी नलिनी सुभ्रूः शोभना सुरनायिका ।
कालकण्ठी कान्तिमयी क्षोभिणी सूक्ष्मरुपिणी ।।

वज्रेश्वरी वामदेवी वयोवस्था – विवर्जिता ।
सिद्धेश्वरी सिद्धविद्या सिद्धमाता यशस्वनी ।।

विशुद्धि – चक्र – निलया - ऽऽरक्तवर्णा त्रिलोचना ।
खट्वाङ्गदि – प्रहरणा वदवैक – समन्विता ।।

पायसान्न प्रिया त्वकस्था पशुलोक भयंक्करी ।
अमृतादि – महाशक्ति –संवृता डाकिनीश्वरी ।।

अनाहाताब्ज – निलया श्यामाभा वदनद्वया ।
दंष्ट्रोज्ज्वलाक्षमालादि – धरा रुधिर – संस्थिता ।।

कालरात्र्यादि – शक्त्यौघ – वृता स्न्गिधौदन – प्रिया ।
महावीरेन्द्र वरदा राकिण्यम्बा – स्वरुपिणी ।।

मणिपूराब्ज निलया वदहत्रय – संयुता ।
वज्राधिकायुधोपेता डामर्यादिभि – रावृता ।।

रक्तिवर्णा मांसनिष्ठा गुडान्न – प्रीत – मानसा ।
समस्तभक्त – सुखदा लाकिन्यम्बा – स्वरुपिणी ।।

स्वाधिष्ठानाम्बुजकता चर्तुवक्त्र – मनोहरा ।
शूलाद्यायुद्ध – सम्पन्ना पीतवर्णाऽतिगर्विता ।।

मेदो निष्ठा मधुप्रीता बन्धिन्यादि – समन्विता ।
दध्यन्नासक्त – ह्रदया काकिनी – रुप – धारिणी ।।

मूलाधाराम्बुजारुढा पञ्चवक्त्रास्थि – संस्थिता ।
अङ्कुशादि –प्रहरणा वरदादि – निषेविता ।।

मुद्गौदनासक्त – चित्ता साकिन्यम्बा – स्वरुपिणी ।
आज्ञा – चक्राब्ज – निलया शुक्लवर्णा षडानना ।।

मज्जा – संस्था हंसवती – मुख्य – शक्ति – समान्विता ।
हरिद्रान्नैक – रसिका हाकिनी – रुप – धारिणी ।।

सहस्रदल – पद्य्मस्था सर्व – वर्णोप – शोभिता ।
सर्वायुध – धरा शुक्ल – संस्थिता सर्वतोमुखी ।।

सर्वौदन- प्रीतचित्ता याकिन्यम्बा – स्वरुपिणी ।
स्वाहा स्वधाऽमति – र्मेधा श्रुति- स्मृति- रन्नुमत्ता ।।

पुण्यकीर्तिः पुण्यलभ्या पुण्यश्रवण – कीर्तिना ।
पुलोमजार्चिता बन्धमोचनी बन्धुरालका ।।

विमर्शरुपिणी विद्या वियदादि – जगत्प्रसूः ।
सर्वव्याधि – प्रशमनी सर्वमृत्यु – निवारणी ।।

अग्रगण्या - ऽचिन्त्यरुपा कलिकल्मष – नाशिनी ।
कात्यायनी कालहन्त्री कमलाक्ष – निषेविता ।।

ताम्बूल – पूरित – मुखी दाडिमी –कुसुम – प्रभा ।
मृगाक्षी मोहिनी मुख्या मृडानी मित्ररुपिणी ।।

नित्य – तृप्ता भक्तिनिधि – र्नियन्त्री निखिलेश्वरी ।
मैत्र्यादि – वासनालभ्या महा-प्रलय-साक्षिणी ।।

पराशक्तिः परानिष्ठा प्रज्ञानघन – रुपिणी ।
माध्वीपानालसा मत्ता मातृका – वर्ण-रुपिणी ।।

महाकैलास-निलया – मृणाल-मृदु-दोर्लता ।
महनीया दयामूर्ति – र्महासाम्राज्य-शालिनी ।।

आत्मविद्या महाविद्या श्रीविद्या कामसेविता ।
श्रीषोडाशाक्षरीविद्या त्रिकुटा कामकोटिका ।।

कटाक्ष – किंक्करी-भूत – कमला – कोटि – सेविता ।
शिरःस्थिता चन्द्रनिभा भालस्थेन्द्रु – धनुः प्रभा ।।

ह्दयास्था रविप्रख्या त्रिकोणान्तर – दीपिका ।
दाक्षायणी दैन्त्यहन्त्री दक्षयज्ञविनाशनी ।।

दरान्दोलित दीर्घाक्षी दरहासोज्ज्वलमुखी ।
गुरु-मूर्ति-गुण-निधि-र्गोमाता गुहजन्म – भूः ।।

देवेशी दण्डनीतिस्था दहराकाश – रुपिणी ।
प्रतिपन्मुख्य – राकान्त –तिथि-मण्डल – पूजिता ।।

कलात्मिका कलानाथा काव्यालाप – विनोदनी ।
सचामर – रमा – वाणी – सव्य – दक्षिण – सेविता ।।

आदिशक्ति - रमेयाऽऽत्मा परमा पावनाकृतिः ।
अनेक –कोटि-ब्रह्माण्ड-जननी दिव्य-विग्रहा ।।

क्लीं कारी केवला गुह्या कैवल्य-पद-दायिनी ।
त्रिपुरा त्रिजगद्वन्द्या त्रिमूर्ति-स्रिदशेश्वरी ।

त्र्यक्षरी दिव्य – गन्धाढ्या सिन्दुर-तिलकाञ्जिता ।
उमा शैलेन्द्रतनया गौरी गन्धर्व – सेविता ।।

विश्वगर्भा स्वर्णगर्भा - ऽवरदा वागधीश्वरी ।
ध्यानगम्या - ऽपरिच्छेद्या ज्ञानदा ज्ञानविग्रहा ।।

सर्व-वेदान्त-सम्यवेद्या सत्यानन्द स्वरुपिणी ।
लोपामुदार्चिता लीलाक्लृप्त – ब्रह्माण्ड-मण्डला ।।

अदृश्या दृश्यरहिता विज्ञात्री वैद्य-वर्जिता ।
योगिनी योगदा योग्या योगानन्दा युगन्धरा ।।

इच्छाशक्ति-ज्ञानशक्ति-क्रियाशक्ति-स्वरुपिणी ।
सर्वाधारा सुप्रतिष्ठा सदसद्रूप धारिणी ।।

अष्टमूर्ति – रजाजैत्री लोकयात्रा विधायिनी ।
एकाकिनी भूमरुपा निर्द्वैता – द्वैतवर्जिता ।।

अन्नदा वसुदा वृद्वा ब्रह्मात्मैक्य – स्वरुपिणी ।
बृहती ब्राह्मणी ब्राह्मी ब्रह्मानन्दा बलिप्रिया ।।

भाषारुपा बृहत्सेना भावाभाव – विवर्जिता ।
सुखाराध्या शुभकरी शोभनासुलभागतिः ।।

राजराजेश्वरी राज्यदायिनी राज्यवल्लभा ।
राजत्कृपा राजपीठ – निवेशित-निजाश्रिता ।।

राज्यलक्ष्मीः कोशनाथा चतुपङ्ग – बलेश्वरी ।
साम्राज्य – दायिनी सत्यसन्धा सागरमेखला ।।

दीक्षिता दैत्यशमनी सर्वलोकवशंक्करी ।
सर्वार्थदात्री सावित्री सच्चिदानन्द- रुपिणी ।।

देशकालापरिच्छिन्ना सर्वगा सर्वमोहिनी ।
सरस्वती शास्रमयी गुहाम्बा गुह्यारुपिणी ।।

सर्वोपाधि – विर्निमुक्ता सदाशिव – पतिव्रता ।
सम्प्रदायेश्वरी साध्वी गुरुमण्डल – रुपिणी ।।

कुलोत्तीर्णा भगाराध्या माया मधुमती मही ।
गणाम्बा गुह्यकाराध्या कोमलांगी गुरुप्रिया ।।

स्वतन्त्रा सर्वतन्त्रेशी दक्षिणामूर्ति – रुपिणी ।
सनकादि – समाराध्या शिवज्ञान – प्रदायिनी ।।

चित्कलाऽऽनन्द – कलिका प्रेमरुपा प्रियंक्करी ।
नामपारायण – प्रीता नन्दिविद्या नटेश्वरी ।।

मिथ्या – जगदधिष्ठाना मुक्तिदा मुक्तिरुपिणी ।
लास्यप्रिया लयकरी लज्जा रम्भादिवन्दिता ।।

भवदाव – सुधावृष्टिः पापारण्य – दवानला ।
दौर्भाग्य – तूलवातुला जराध्वान्तरविप्रभा ।।

भाग्याब्धि – चन्द्रिका भक्त-चित्त-केकि-घनाघना ।
रोगपर्वत – दम्भोलि-र्मृत्युदारु-कुठारिका ।।

महेश्वरी महाकाली महाग्रासा महाशना ।
अपर्णा चण्डिका चण्डमुण्डासुर – निषूदनी ।।

क्षराक्षरात्मिका सर्वलोकेशी विश्वधारिणी ।
त्रिवर्गदात्री सुभगा त्र्यम्बका त्रिगुणात्मिका ।।

स्वर्गापवर्गदा शुद्धा जपापुष्प – निभाकृतिः ।
ओजोवती द्युतिधरा यज्ञरुपा प्रियव्रता ।।

दुराराध्या दुराधर्षा पाटली – कुसुम-प्रिया ।
महती मेरुनिलया मन्दार-कुसुम-प्रिया ।।

वीराराध्या विराड्रुपा विरजा विश्वतोमुखी ।
प्रत्यग् – रुपा पराकाशा प्राणदा प्राणरुपिणी ।।

मार्ताण्ड – भैरवाराध्या मन्त्रिणी-न्यस्त-राज्यधूः ।
त्रिपुरेशी जयत्सेना निस्रैगुण्या परापरा ।।

सत्यज्ञानान्द – रुपा सामरस्य – परायणा ।
कपर्दिनी कलामाला कामधु-क्काम-रुपिणी ।।

कलानिधिः काव्यकला रसज्ञा रसशेवधिः ।
पुष्टा पुरातना पूज्या पुष्करा पुष्करेक्षणा ।।

परञ्ज्योतिः परन्धाम परमाणुः परात्परा ।
पाशहत्सा पाशहन्त्री परमन्त्र – विभेदनी ।।

मूर्ताऽमूर्ता नित्यतृप्ता मुनिमानस – हंसिका ।
सत्यव्रता सत्यरुपा सर्वान्तर्यामिनी सती ।।

ब्रह्माणी ब्रह्मजननी बहुरुपा बुधार्चिता ।
प्रसवित्री प्रचण्डाऽऽज्ञा प्रतिष्ठा प्रकटाकृतिः ।।

प्राणेश्वरी प्राणदात्री पञ्चाशत्पीठ – रुपिणी ।
विश्वृंखला विवित्तस्था वीरमाता वियत्सप्रसुः ।।

मुकुन्दा मक्तिनिलया मूलविग्रह-रुपिणी ।
भावज्ञा भवरोगघ्नी भवचक्र-प्रवर्तिनी ।।

छन्दः सारा शास्रसारा मन्त्रसारा तलोदरी ।
उदारकीर्ति – रुद्दामवैभवा वर्णरुपिणी ।।

जन्ममृत्यु – जरातप्त-जन-विश्रांति-दायिनी ।
सर्वोप्निष-दुद्घुष्टा शान्त्यतीत – कलात्मिका ।।

गम्भीरा गगनान्तस्था गर्विता गानलोलुपा ।
कल्पना – रहिता काष्ठाऽकान्ता कान्तार्ध – विग्रहा ।।

कार्यकारण – निर्मुक्ता कामकेलि – तरङ्गिता ।
कनत्कनक –ताटंक्का लीला-विग्रह-धारिणी ।।

अजा क्षयविर्निर्मुक्ता मुग्धा क्षिप्र-प्रसादिनी ।
अन्तर्मुख – समाराध्या बहिर्मुख – सुदुर्लभा ।।

त्रयी त्रिवर्ग- निलया त्रिस्था त्रिपुर – मालिनी ।
निरामया निरालम्बा स्वात्मारामा सुधासृतिः ।।

संसारपङ्क – निमर्ग्र – समुद्धरण – पण्डिता ।
यज्ञप्रिया यज्ञकर्त्री यजमान – स्वरुपिणी ।।

धर्माधारा धनाध्यक्षा धनधान्य – विवार्धिनी ।
विप्रप्रिया विप्ररुपा विश्वभ्रमण – कारिणी ।।

विश्वग्रासा विद्रुमाभा वैष्णवी विष्णुरुपिणी ।
अयोनि –र्योनि-निलया कूटस्था कुलरुपिणी ।।

वीरगोष्ठी – प्रिया वीरा नैष्कर्म्या नादरुपिणी ।
विज्ञानकलना कल्या विदग्धा बैन्दवासना ।।

तत्तवाधिका तत्वमयी त्तत्वमर्थ – स्वरुपिणी ।
सामगन – प्रिया सोम्या सदाशिव – कुटुम्बिनी ।।

सव्यापसव्य – मार्गस्था सर्वापद्धिनिवारिणी ।
स्वस्था स्वभावमधुरा धीरा धीरसमर्चिता ।।

चैतन्यार्ध्य – समाराध्या चैतन्य-कुसुम-प्रिया ।
सदोदिता सदातुष्टा तरुणादित्य – पाटला ।।

दक्षिणा – दक्षिणाराध्या दरस्मेर-मुखाम्बुजा ।
कौलिनी - केवऽनर्घ्य – कैवल्य-पद-दायिनी ।।

स्तोत्र-प्रिया स्तुतिमती श्रुति-संस्तुत-वैभवा ।
मन्स्विनी मानवती महेशी मंङ्ग्लाकृतिः ।।

विश्वमाता जगद्धात्री विशालाक्षी विरागिणी ।
प्रगल्भा परमोदारा परामोदा मनोमयी ।।

व्योमकेशी विमानस्था वज्रिणी वामकेश्वरी ।
पञ्चयज्ञ प्रिया पञ्चप्रेत-मञ्चाधिशायिनी ।।

पञ्चमी पञ्चभूतेशी पञ्चसंख्योपचारिणी ।
शाश्वती शाश्वतैश्वर्या शर्मदा शम्भुमोहिनी ।।

धरा धरसुता धन्या धर्मिणी धर्मवर्धिनी ।
लोकातीता गुणातीता सर्वातीता शमात्मिका ।।

बन्धुक-कुसुम-प्रख्या बाला लीला-विनोदिनी ।
सुमङ्गली सुखकरी सवेषाढ्या सुवासिनी ।।

सुवासिन्यर्चन-प्रीताऽऽशोभना शुद्ध-मानसा ।।
बिन्दु-तर्पण-सन्तुष्टा पूर्वजा त्रिपुराम्बिका ।।

दशमुद्रा-समाराध्या त्रिपुराश्रीवशंक्करी ।
ज्ञानमुद्रा ज्ञानगम्या ज्ञान-ज्ञेय-स्वरुपिणी ।।

योनिमुद्रा त्रिखण्डेशी त्रिगुणाम्बा त्रिकोणगा ।
अनघाऽद्भुत- चारिता वाञ्छितार्थ – प्रदायिनी ।।

अभ्यासातिशय – ज्ञाता षडध्वातीत – रुपिणी ।
अव्याज-करुणा-मूर्ति-रज्ञान-ध्वान्त-दीपिका ।।

आबाल – गोप-विदिता सर्वानुल्लंघ्य-शासना ।
श्रीचक्रराज निलया श्रीमत्-त्रिपुरसुन्दरी ।।

श्री शिवा शिव –शक्त्यैक्य-रुपिणी ललिताम्बिका ।
एवं श्रीललितादेव्या नाम्नां साहस्रकं जगुः ।।

।।इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे उत्तरखण्डे श्रीहयग्रीवागस्त्य-संवादे
          श्री ललितासहस्रनाम-स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।

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घोरकष्टोद्धरणस्तोत्रम्

।। घोरकष्टोद्धरणस्तोत्रम् ।।

श्रीपाद  श्री वल्लभ त्वं सदैव,                                            श्रीदत्तास्मान पाहि देवाधिदेव ।
भावग्राह्य क्लेशहारिन सुकीर्ते,                         घोरात्कष्टात उध्दरास्मान नमस्ते ।।१।।

संक्षिप्तार्थ: हे देवाधिदेवा श्रीदत्ता, श्रीपादा, श्रीवल्लभा, भावग्राह्या – क्लेशहारका सुकिर्ते, तुं सर्वदा आमचे रक्षण कर. आमचा या घोर कष्टातून उध्दार कर. तुला नमस्कार असो. ।।१।।

त्वं नो माता, त्वं पिताप्तो धिपस्त्वं,          त्राता योगक्षेमकृत, सदगुरुस्त्वम्                       त्वं सर्वस्वं, नः प्रभो विश्र्वमूर्ते,                         घोरात्कष्टात उध्दरास्मान नमस्ते ।।२।।

संक्षिप्तार्थ: हे अप्रभो (नाहि प्रभु ज्याला, तो अप्रभु म्हणजे सर्वप्रभु) सर्वप्रभो विश्र्वमुर्ते तू आमची माता, पिता, मालक, योगक्षेम चालविणारा सद्गुरु व सर्वस्व आहेस; म्हणुन आमचा या घोर कष्टातून उद्धार कर. तुला नमस्कार असो. ।।२।।

पापं तापं व्याधि माधिं च दैन्यं, भीतिं क्लेशं त्वं हराशु त्वदन्यम् ।
त्रातारं नो वीक्ष ईशास्तजूर्ते, घोरात्कष्टात उध्दरास्मान नमस्ते ।।३।।

संक्षिप्तार्थ: हे ईश्वरा, तू आमचे पाप, ताप, शारीरिक व्याधी, मानसिक आधी, दारिद्य्र, भीती व क्लेश यांचे सत्वर हरण कर. हे पीडा नाशका, तुझ्यावाचून अन्य त्राता आम्हाला दिसत नाही. याकरिता आमचा या घोर संकटातून उद्धार कर. तुला नमस्कार असो. ।।३।।

नान्यस्त्राता नापि दाता न भर्ता, त्वत्तो देव त्वं शरण्योकहर्ता ।
कुर्वात्रेयानुग्रहं पूर्णराते, घोरात्कष्टात उध्दरास्मान नमस्ते ।।४।।

संक्षिप्तार्थ: हे देवा, आम्हास तुझ्याहून दुसरा त्राता नाही. दाता नाही. भर्ताही नाही. तू शरणागत-रक्षक व दु:खहर्ता आहेस. हे अत्रेया, आमच्यावर अनुग्रह कर. हे पुर्णकामा, घोर संकटापासून आमचा उद्दार कर. तुला नमस्कार असो. ।।४।।

धर्मे प्रीतिं सन्मतिं देवभक्तिं, सत्संगाप्तिं देहि भुक्तिं च मुक्तिम् ।
भावासक्तिं चाखिलानन्दमूर्ते, घोरात्कष्टात उध्दरास्मान नमस्ते ।।५।।

संक्षिप्तार्थ: हे अखिलानंदकारकमुर्ते देवा, आम्हाला धर्माचे ठिकाणी प्रीती, भुक्ति, मुक्ति व भक्तिचे ठिकाणी आसक्ती दे. सर्व घोर कष्टातून आमचा उद्धार कर. तुझे चरणारविंदी आमचे शतश: प्रणाम असो. ।।५।।

श्र्लोक पंचक मेतद्यो लोकमंगल वर्धनम् ।
प्रपठेन्नियतो भक्त्या स श्रीदत्तप्रियो भवेत् ।।

संक्षिप्तार्थ: श्री सद्गुरुमहाराज म्हणतात, “सर्वांचे कल्याण करणारे हे श्लोकपंचक नियमपुर्वक नित्यश: भक्तिभावाने जो पठण करील तो मनुष्य, श्रीदत्ताला अत्यंत प्रिय होईल व श्रीदत्तही उत्तरोत्तर या भक्ताला प्रिय होईल”, असा माझा आशीर्वाद आहे ।।

इति श्रीमद वासुदेवानंद सरस्वती कृतं घोरकष्टोध्दरणस्तोत्रं संपूर्णम् ।।

श्री दत्त पंचपदी

श्री दत्त पंचपदी

।।करुणात्रिपदी।।

(श्रीमद्वासुदेवानन्‍दसरस्वतीस्वामीमहाराजविरचित)

शांत हो श्रीगुरुदत्ता । मम चित्ता शमवी आता ।।धृ।।

तू केवळ माता जनिता । सर्वथा तू हितकर्ता ||

तू आप्तस्वजन भ्राता । सर्वथा तूचि त्राता ||

भयकर्ता तू भयहर्ता । दंडधर्ता तू परिपाता ||

तुजवाचुनि न दुजी वार्ता । तू आर्ता आश्रय दत्ता ||

शांत हो । शांत हो श्रीगुरुदत्ता ।।१।।

अपराधास्तव गुरुनाथा । जरि दंडा धरिसी यथार्था ।।

तरि आम्ही गाउनि गाथा । तव चरणीं नमवू माथा ।।

तू तथापि दंडिसी देवा । कोणाचा मग करूं धावा ||

सोडविता दुसरा तेव्हां । कोण दत्ता आम्हां त्राता ||

शांत हो । शांत हो श्रीगुरुदत्ता ।।२।।

तू नटसा होउनि कोपी । दंडिताहि आम्ही पापी ||

पुनरपिही चुकत तथापि । आम्हांवरी न च संतापी ।।

गच्छतः स्खलनं क्वापि । असें मानुनि नच होऊ कोपी ||

निजकृपा लेशा ओपी । आम्हांवरि तू भगवंता ।।

शांत हो । शांत हो श्रीगुरुदत्ता ।।३।।

तव पदरीं असता ताता । आडमार्गीं पाऊल पडतां ||

सांभाळुनि मार्गावरता । आणिता न दूजा (दुसरा) त्राता ||

निजबिरुदा आणुनि चित्ता । तू पतितपावन दत्ता ||

वळे आतां आम्हांवरता | करुणाघन तू गुरुनाथा ||

शांत हो । शांत हो श्रीगुरुदत्ता ।।४।।

सहकुटुंब सहपरिवार । दास आम्ही हें घरदार ||

तव पदी अर्पू असार । संसाराहित हा भार ||

परिहरिसी करुणासिंधो । तू दीनानाथ सुबन्‍धो ||

आम्हां अघ लेश न बाधो । वासुदे-प्रार्थित दत्ता ।।

शांत हो श्रीगुरुदत्ता । मम चित्ता शमवी आता ।।५।।

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श्रीगुरुदत्ता जय भगवंता । ते मन निष्ठुर न करी आता ।।धृ।।

चोरे द्विजासी मारीता मन जे । कळवळले ते कळवळो आता ।।१।।

पोटशूळाने द्विज तडफडता । कळवळले ते कळवळो आता ।।२।।

द्विजसुत मरता वळले ते मन । हो की उदासीन न वळे आता।।३।।

सतिपति मरता काकुळती येता । वळले ते मन न वळे की आता।।४।।

श्रीगुरुदत्ता त्यजी निष्ठुरता। कोमल चित्ता वळवी आता।।

श्रीगुरुदत्ता जय भगवंता । ते मन निष्ठुर न करी आता ।।५।।

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जय करुणाघन निजजनजीवन । अनसूयानन्‍दन पाहि जनार्दन ।।धृ।।

निज-अपराधे उफराटी दृष्टी । होऊनि पोटी भय धरू पावन ।।१।।

तू करुणाकर कधी आम्हांवर । रुसशी न किंकर-वरद-कृपाघन।।२।।

वारी अपराध तू मायबाप । तव मनी कोप लेश न वामन ।।३।।

बालकापराधा गणे जरी माता । तरी कोण त्राता देईल जीवन ।।४।।

प्रार्थी वासुदेव पदी ठेवी भाव । पदी देवो ठाव देव अत्रिनन्‍दन।।

जय करुणाघन निजजनजीवन । अनसूयानन्‍दन पाहि जनार्दन।।५।।

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उद्धरी गुरुराया, अनसूया, तनया दत्तात्रेया ||धृ||

जो अनसूयेच्या, भावाला, भुलूनिया सुत झाला,
दत्तात्रेय अशा, नामाला, मीरवी वंद्य सुरांला,
तो तू मुनीवर्या, निज पाया, स्मरता वारीसी माया
उद्धरी गुरुराया, अनसूया तनया दत्तात्रेया ||१||

जो माहुरपूरी, शयन करी, सह्याद्रीचे शिखरी,
निवासे गंगेचे, स्नान करी, भिक्षा कोल्हापूरी,
स्मरता दर्शन दे, वारी भया, तो तू आगमेया
उद्धरी गुरुराया, अनसूया, तनया दत्तात्रेया ||२||

तो तू वांझेसी, सुत देसी, सौभाग्या वाढविसी,
मरता प्रेतासी, जीववीसी, सत्वर-दाना देसी,
यास्तव वासुदेव, तव पाया, धरी त्या तारी सदया,
उद्धरी गुरुराया, अनसूया, तनया दत्तात्रेया ||३||

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सांगावे, कवण्या ठाया जावे, कवणा ते स्मरावे,

कैसे काय करावे, कवण्या परि मी रहावे |

कवण येउन, कुरुंद-वाडी, स्वामी ते मिळवावे, सांगावे ||धृ||

या हारि, जेवावे व्यवहारी, बोलावे संसारी, 

घालूनी अंगिकारी, प्रतीपाळीसि जो निर्धारी,

केला जो निज निश्चय स्वामी कोठे तो अवधारी, सांगावे ||१||

या रानी, माझी करुणावाणी, कायाकष्टी प्राणी,

ऐकुनी घेशील कानी, देशील सौख्य निदानी,

संकट येऊनि, मूर्च्छित असता, पाजील कवण पाणी, सांगावे ||२||

त्यावेळा, सत्पुरुषांचा मेळा, पहातसे निज डोळा,

लावति भस्म कपाळा, सांडी भय तू बाळा,

श्रीपाद श्रीवल्लभ म्हणती, अभय तुज गोपाळा, सांगावे ||३||

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श्रीरामरक्षा स्तोत्र

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥

श्रीगणेशायनम: ।

अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य ।

बुधकौशिक ऋषि: ।

श्रीसीतारामचंद्रोदेवता ।

अनुष्टुप्‌ छन्द: । सीता शक्ति: ।

श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ ।

श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥

अर्थ: — इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्र के रचयिता बुध कौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमान जी कीलक है तथा श्री रामचंद्र जी की प्रसन्नता के लिए राम रक्षा स्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता हैं |
 

॥ अथ ध्यानम्‌ ॥

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं ।

पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥

वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।

नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥

ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्द पद्मासन की मुद्रा में विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो बाएँ ओर स्थित सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का ध्यान करें |

॥ इति ध्यानम्‌ ॥ 

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌ ।

एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌ ॥१॥ 

श्री रघुनाथजी का चरित्र सौ करोड़ विस्तार वाला हैं | उसका एक-एक अक्षर महापातकों को नष्ट करने वाला है |

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌ ।

जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥ 

नीले कमल के श्याम वर्ण वाले, कमलनेत्र वाले , जटाओं के मुकुट से सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्री राम का स्मरण करके,

सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्‌ ।

स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥

जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथों में खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसों के संहार तथा अपनी लीलाओं से जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीराम का स्मरण करके,

रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌ ।

शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥

मैं सर्वकामप्रद और पापों को नष्ट करने वाले राम रक्षा स्तोत्र का पाठ करता हूँ | राघव मेरे सिर की और दशरथ के पुत्र मेरे ललाट की रक्षा करें |

कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती ।

घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥

कौशल्या नंदन मेरे नेत्रों की, विश्वामित्र के प्रिय मेरे कानों की, यज्ञरक्षक मेरे घ्राण की और सुमित्रा के वत्सल मेरे मुख की रक्षा करें |

जिव्हां विद्दानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: ।

स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥

मेरी जिह्वा की विधानिधि रक्षा करें, कंठ की भरत-वंदित, कंधों की दिव्यायुध और भुजाओं की महादेवजी का धनुष तोड़ने वाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें |

करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌ ।

मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥

मेरे हाथों की सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदय की जमदग्नि ऋषि के पुत्र (परशुराम) को जीतने वाले, मध्य भाग की खर (नाम के राक्षस) के वधकर्ता और नाभि की जांबवान के आश्रयदाता रक्षा करें |

सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: ।

ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत्‌ ॥८॥

मेरे कमर की सुग्रीव के स्वामी, हडियों की हनुमान के प्रभु और रानों की राक्षस कुल का विनाश करने वाले रघुश्रेष्ठ रक्षा करें |

जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तक: ।

पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥

मेरे जानुओं की सेतुकृत, जंघाओं की दशानन वधकर्ता, चरणों की विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले और सम्पूर्ण शरीर की श्रीराम रक्षा करें |

एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत्‌ ।

स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌ ॥१०॥

शुभ कार्य करने वाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धा के साथ रामबल से संयुक्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं |

पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिण: ।

न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥

जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाश में विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेश में घूमते रहते हैं , वे राम नामों से सुरक्षित मनुष्य को देख भी नहीं पाते |

रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन्‌ ।

नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥

राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामों का स्मरण करने वाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता. इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है |

जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌ ।

य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥

जो संसार पर विजय करने वाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं |

वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌ ।

अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम्‌ ॥१४॥

जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवच का स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञा का कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगल की ही प्राप्ति होती हैं |

आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: ।

तथा लिखितवान्‌ प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥

भगवान् शंकर ने स्वप्न में इस रामरक्षा स्तोत्र का आदेश बुध कौशिक ऋषि को दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागने पर उसे वैसा ही लिख दिया |

आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम्‌ ।

अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान्‌ स न: प्रभु: ॥१६॥

जो कल्प वृक्षों के बगीचे के समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियों को दूर करने वाले हैं (विराम माने थमा देना, किसको थमा देना/दूर कर देना ? सकलापदाम = सकल आपदा = सारी विपत्तियों को)  और जो तीनो लोकों में सुंदर (अभिराम + स्+ त्रिलोकानाम) हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं |

तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।

पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥

जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमल (पुण्डरीक) के समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियों की तरह वस्त्र एवं काले मृग का चर्म धारण करते हैं |

फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।

पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥

जो फल और कंद का आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें |

शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌ ।

रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥

ऐसे महाबली – रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियों के शरणदाता, सभी धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसों के कुलों का समूल नाश करने में समर्थ हमारा त्राण करें |

आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्‌ग सङि‌गनौ ।

रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम्‌ ॥२०॥

संघान किए धनुष धारण किए, बाण का स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणों से युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मेरे आगे चलें |

संनद्ध: कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा ।

गच्छन्‌मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥

हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथ में खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्था वाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें |

रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।

काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥
भगवान् का कथन है की श्रीराम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम,  

वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: ।

जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥
वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरूषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामों का

इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: ।

अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥
नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने वाले को निश्चित रूप से अश्वमेध यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त होता हैं |

रामं दूर्वादलश्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम्‌ ।

स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥

दूर्वादल के समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीराम की उपरोक्त दिव्य नामों से स्तुति करने वाला संसारचक्र में नहीं पड़ता |

रामं लक्शमण पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्‌ ।

काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌ 

राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम्‌ ।

वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌ ॥२६॥
लक्ष्मण जी के पूर्वज , सीताजी के पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणा के सागर , गुण-निधान , विप्र भक्त, परम धार्मिक , राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथ के पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर, रघुकुल तिलक , राघव एवं रावण के शत्रु भगवान् राम की मैं वंदना करता हूँ |

रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।

रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥ 
राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजी के स्वामी की मैं वंदना करता हूँ |

श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम ।

श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।

श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।

श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥

हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरत के अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए |

श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि ।

श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।

श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि ।

श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥
मैं एकाग्र मन से श्रीरामचंद्रजी के चरणों का स्मरण और वाणी से गुणगान करता हूँ, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धा के साथ भगवान् रामचन्द्र के चरणों को प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणों की शरण लेता हूँ |

माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: ।

स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: ।

सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु ।

नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥
श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं | इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं. उनके सिवा में किसी दुसरे को नहीं जानता |

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा ।

पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम्‌ ॥३१॥
जिनके दाईं और लक्ष्मण जी, बाईं और जानकी जी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथ जी की वंदना करता हूँ |

लोकाभिरामं रनरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्‌ ।

कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥
मैं सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर तथा रणक्रीड़ा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणा की मूर्ति और करुणा के भण्डार की श्रीराम की शरण में हूँ |

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌ ।

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥
जिनकी गति मन के समान और वेग वायु के समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूत की शरण लेता हूँ |

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌ ।

आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥
मैं कवितामयी डाली पर बैठकर, मधुर अक्षरों वाले ‘राम-राम’ के मधुर नाम को कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयल की वंदना करता हूँ |

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌ ।

लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥

मैं इस संसार के प्रिय एवं सुन्दर उन भगवान् राम को बार-बार नमन करता हूँ, जो सभी आपदाओं को दूर करने वाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करने वाले हैं |

भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम्‌ ।

तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥
‘राम-राम’ का जप करने से मनुष्य के सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं | वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं | राम-राम की गर्जना से यमदूत सदा भयभीत रहते हैं |

रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।

रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: ।

रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम्‌ ।

रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥

राजाओं में श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजय को प्राप्त करते हैं | मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीराम का भजन करता हूँ | सम्पूर्ण राक्षस सेना का नाश करने वाले श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ | श्रीराम के समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं | मैं उन शरणागत वत्सल का दास हूँ | मैं हमेशा श्रीराम मैं ही लीन रहूँ | हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें |

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥
  (शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं | मैं सदा राम का स्तवन करता हूँ और राम-नाम में ही रमण करता हूँ |

इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥

॥ श्री सीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥